अछा वद तवसं गीर्भिर आभि सतुहि पर्जन्यं नमसा विवास |
कनिक्रदद वर्षभो जीरदानू रेतो दधात्य ओषधीषु गर्भम ||
वि वर्क्षान हन्त्य उत हन्ति रक्षसो विश्वम बिभाय भुवनम महावधात |
उतानागा ईषते वर्ष्ण्यावतो यत पर्जन्य सतनयन हन्ति दुष्क्र्तः ||
रथीव कशयाश्वां अभिक्षिपन्न आविर दूतान कर्णुते वर्ष्य्रं अह |
दूरात सिंहस्य सतनथा उद ईरते यत पर्जन्यः कर्णुते वर्ष्यं नभः ||
पर वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उद ओषधीर जिहते पिन्वते सवः |
इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत पर्जन्यः पर्थिवीं रेतसावति ||
यस्य वरते पर्थिवी नन्नमीति यस्य वरते शफवज जर्भुरीति |
यस्य वरत ओषधीर विश्वरूपाः स नः पर्जन्य महि शर्म यछ ||
दिवो नो वर्ष्टिम मरुतो ररीध्वम पर पिन्वत वर्ष्णो अश्वस्य धाराः |
अर्वाङ एतेन सतनयित्नुनेह्य अपो निषिञ्चन्&
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